शनिवार, 22 अगस्त 2009

सपना

सपना ;

डॉ.लाल रत्नाकर जिसने एक सपना देखा था ख्वाब बुने थे गैरों की गैरत ने तब उन्हें तबाह किया, हश्र तो उनका जो होना था वह तो नहीं हुआ,  पर जो सपने में भी नहीं सोचा था उनका वही हुआ ! शाम सबरे हम थे; उनके रात रात भर जग कर सँवारने  के  ख्वाब थे उनके और पिता जी थे गुस्से में पर हमने नहीं सुना ! उनका बड़ा बडपन्न था ! जब सब कुछ सहा-गहा. पर तब हम सब थे. भावुक जब-जब उन्होंने कुछ भी हमें कहा,आज समझ में नहीं आ रहा तब पागलपन ये क्यों रहा है ? उनकी औलादों से जिनकी वजह से परिवार की मर्यादा तहस नहस हुई ?


उसी घटना ने छिन्न भिन्न किया जिसका उल्लेख यहाँ करना है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें